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RSS के सौ साल: संविधान, तिरंगे और जाति पर बदलता रुख | New PaperDoll

RSS के सौ साल

आरएसएस के सौ साल: संविधान, राष्ट्रध्वज और जाति व्यवस्था पर बदलता नजरिया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सौ साल पूरे होने के मौके पर इसके विचारों की चर्चा जोरों पर है। भारत के संविधान, तिरंगे झंडे और जाति व्यवस्था जैसे अहम मुद्दों पर संघ का रुख समय के साथ बदलता रहा है। आजादी के बाद से लेकर अब तक, इन तीनों विषयों पर आरएसएस के विचारों में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं। आइए, इस बदलते नजरिए की कहानी को समझते हैं।

संविधान के प्रति आरएसएस का जटिल रिश्ता

आरएसएस का भारत के संविधान के साथ रिश्ता हमेशा से जटिल रहा है। संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा था कि भारत का संविधान पश्चिमी देशों के संविधानों का एक मिश्रण मात्र है। उन्होंने कहा, “इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारा अपना हो। क्या इसमें हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य या जीवन के उद्देश्य का कोई जिक्र है? नहीं!” गोलवलकर का मानना था कि संविधान में भारतीय संस्कृति और मूल्यों की झलक नहीं दिखती।

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तिरंगे पर शुरूआती विरोध और बाद में बदलाव

15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, लेकिन उससे ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त को आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ में तिरंगे के खिलाफ सख्त टिप्पणी छपी थी। इसमें लिखा गया था, “जो लोग सत्ता में आए हैं, वे भले ही तिरंगा हमारे हाथ में थमा दें, लेकिन हिंदू इसे कभी सम्मान नहीं देंगे।” उस वक्त संघ का मानना था कि तिरंगा भारतीय परंपरा का प्रतीक नहीं है। हालांकि, समय के साथ आरएसएस का यह रुख नरम पड़ा और आज संघ के कार्यक्रमों में तिरंगे को सम्मान के साथ फहराया जाता है।

जाति व्यवस्था पर बदलता दृष्टिकोण

जाति व्यवस्था को लेकर भी आरएसएस का नजरिया समय के साथ बदला है। शुरूआत में संघ पर यह आरोप लगता था कि वह जाति व्यवस्था को बनाए रखने का समर्थक है। लेकिन बाद के सालों में संघ ने सामाजिक समरसता पर जोर देना शुरू किया। आरएसएस के स्वयंसेवक अब जाति के आधार पर भेदभाव को खत्म करने की बात करते हैं और समाज को एकजुट करने की कोशिश करते हैं। यह बदलाव सतही है और जमीनी हकीकत में ज्यादा असर नहीं दिखता।

निष्कर्ष

आरएसएस के सौ साल के सफर में इसके विचारों में बदलाव साफ दिखता है। संविधान, राष्ट्रध्वज और जाति व्यवस्था पर शुरूआती कड़ा रुख समय के साथ लचीला हुआ है। यह बदलाव कहीं न कहीं समाज और राजनीति के बदलते माहौल का नतीजा है। आने वाले दिनों में संघ का यह रुख और कैसे बदलता है, यह देखना दिलचस्प होगा।

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