प्रयागराज, 21 मार्च 2025: इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले ने देश भर में कानूनी और सामाजिक बहस को जन्म दे दिया है। कोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि किसी नाबालिग बच्ची के निजी अंगों को पकड़ना, उसकी सलवार या पायजामे का नाड़ा तोड़ना और उसे जबरन खींचने की कोशिश करना बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के दायरे में नहीं आता। इस फैसले को कोर्ट ने गंभीर यौन उत्पीड़न की श्रेणी में रखा है, जिसके बाद इसके कानूनी और सामाजिक प्रभावों पर सवाल उठने लगे हैं। यह मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले से जुड़ा है, जहां 2021 में 11 साल की एक बच्ची के साथ हुई घटना के बाद यह विवाद शुरू हुआ।
क्या है पूरा मामला?
यह घटना 10 नवंबर 2021 को कासगंज के पटियाली थाना क्षेत्र में हुई थी। एक महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज की थी कि उसकी 11 साल की बेटी को तीन लोगों—पवन, आकाश और अशोक—ने घर छोड़ने के बहाने अपनी मोटरसाइकिल पर बैठाया। रास्ते में, आरोपियों ने बच्ची के साथ छेड़छाड़ की। शिकायत के अनुसार, उन्होंने बच्ची के निजी अंगों को पकड़ा, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ दिया और उसे एक पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की। बच्ची के चीखने पर वहां से गुजर रहे राहगीरों ने हस्तक्षेप किया, जिसके बाद आरोपी मौके से भाग गए।

इसके बाद, निचली अदालत ने आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 18 (अपराध करने का प्रयास) के तहत मुकदमा दर्ज किया। हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की एकल पीठ ने इस फैसले को पलट दिया। कोर्ट ने कहा कि यह कृत्य बलात्कार या उसकी कोशिश नहीं माना जा सकता, बल्कि यह IPC की धारा 354-बी (निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 9/10 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत आता है।
कोर्ट का तर्क क्या था?
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बलात्कार या उसकी कोशिश का मामला तभी बनता है, जब अभियोजन पक्ष यह साबित कर सके कि आरोपी का इरादा तैयारी के चरण से आगे बढ़कर वास्तविक प्रयास में बदल गया था। कोर्ट के अनुसार, इस मामले में ऐसा कोई सबूत नहीं मिला कि आरोपियों का बलात्कार करने का स्पष्ट इरादा था। जस्टिस मिश्रा ने यह भी नोट किया कि गवाहों के बयानों में यह नहीं कहा गया कि बच्ची के कपड़े उतरे थे या वह निर्वस्त्र हुई थी। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि कानूनी परिभाषा के तहत, बलात्कार के लिए निजी अंगों में प्रवेश (पेनिट्रेशन) का होना जरूरी है, जो इस मामले में नहीं हुआ।
फैसले का असर क्या होगा?
इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनका असर कानूनी ढांचे और समाज पर पड़ सकता है:
- कानूनी परिभाषा पर बहस: कई कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला बलात्कार और यौन उत्पीड़न की परिभाषा को लेकर भ्रम पैदा कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने फैसले (2021) में कहा गया था कि यौन इरादे से किसी बच्चे के निजी अंगों को छूना पॉक्सो अधिनियम के तहत यौन हिंसा माना जाएगा, भले ही त्वचा का संपर्क न हुआ हो। इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला उससे उलट नजर आता है, जिसके चलते उच्चतम न्यायालय में इसकी समीक्षा की मांग उठ रही है।
- महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर सवाल: सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला संगठनों ने इस फैसले की कड़ी आलोचना की है। उनका कहना है कि इसे गंभीर यौन हिंसा को कमतर आंकने वाला फैसला माना जा सकता है, जो पीड़ितों के लिए न्याय की राह को मुश्किल बना सकता है। एक कार्यकर्ता ने कहा, “अगर ऐसे कृत्यों को बलात्कार की कोशिश नहीं माना जाएगा, तो अपराधियों का हौसला बढ़ेगा।”
- सुप्रीम कोर्ट में चुनौती: इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका में मांग की गई है कि हाईकोर्ट के फैसले के विवादित हिस्से को हटाया जाए और जजों की ऐसी टिप्पणियों को रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई 24 मार्च 2025 को हो सकती है।
- सामाजिक जागरूकता और सुधार की जरूरत: यह मामला एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि क्या भारत में यौन अपराधों से जुड़े कानूनों को और सख्त करने की जरूरत है। विशेषज्ञों का कहना है कि कानून में “तैयारी” और “प्रयास” के बीच के अंतर को स्पष्ट करने की जरूरत है, ताकि पीड़ितों को उचित न्याय मिल सके।
लोगों की प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। कुछ लोग इसे कानूनी रूप से सही लेकिन नैतिक रूप से असंवेदनशील मान रहे हैं, जबकि अन्य इसे महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के खिलाफ एक कदम बता रहे हैं। एक यूजर ने लिखा, “यह फैसला अपराधियों को खुली छूट देने जैसा है। क्या कोर्ट को नहीं पता कि ऐसी घटनाएं बच्चियों पर कितना गहरा असर डालती हैं?”
आगे क्या?
फिलहाल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिका है। अगर सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फैसले को पलटता है, तो यह यौन अपराधों की परिभाषा को फिर से परिभाषित कर सकता है। दूसरी ओर, अगर यह फैसला बरकरार रहता है, तो इससे कानून में संशोधन की मांग तेज हो सकती है। यह घटना एक बार फिर यह साबित करती है कि भारत में यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई अभी लंबी है, और इसके लिए कानूनी, सामाजिक और नैतिक स्तर पर बदलाव की जरूरत है।
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